सोमवार, 28 मार्च 2011

भारतीय मानस

भारतीयों का दोहरापन: गिरेबां में झांकने का वक्त़
- सुभाष गाताडे
मलेशिया में भारतीय मूल के निवासियों की गिरफ्तारी का मसला पिछले दिनों सूर्खियां बना था।
बताया गया कि हिन्ड्राफ नामक संगठन के कार्यकर्ता इस बात से नाराज थे कि मलेशिया के स्कूलों
में बच्चों के अध्ययन के लिए जो उपन्यास लगाया गया था, वह कथित तौर पर भारत की ‘छवि खराब’
करता है। आखिर उपरोक्त उपन्यास में ऐसी क्या बात लिखी गयी थी, जिससे वहां स्थित भारतवंशी
मूल के लोग अपनी ‘मातृभूमि’ की बदनामी के बारे में चिन्तित हो उठे। अगर हम बारीकी
से देखें तो इस उपन्यास में एक ऐसे शख्स की कहानी है जो तमिलनाडु से मलेशिया में किस्मत
आजमाने आया है और वह यह देख कर हैरान होता है कि अपनी मातृभूमि पर उसका जिन जातीय
अत्याचारों से साबिका पड़ता था, उसका नामोनिशान यहां नहीं है।
प्रश्न उठता है कि अपने यहां जिसे परम्परा के नाम पर महिमामण्डित करने में हम संकोच नहीं करते
हैं, उच्चनीचअनुक्रम पर टिकी इस प्रणाली को मिली दैवी स्वीकृति की बात करते हैं, आज भी
आबादी के बड़े हिस्से के साथ (जानकारों के मुताबिक) 164 अलग अलग ढंग से छूआछूत बरतते
हैं, वही बात अगर सरहद पार की किताब में उपन्यास में ही लिखी गयी तो वह हमें अपमान क्यों
मालूम पड़ता है।
अगर मलेशिया के भारतवंशियों को देखें तो उनका बड़ा हिस्सा तमिलनाडु से सम्बधित रहा
है। और बदनामी की बात अधिक सटिक लग सकती थी, अगर हिन्दोस्तां की सरजमीं पर नहीं कमसे कम
तमिलनाडु में जाति उन्मूलन के कार्यभार को हम लोगों ने पूरा किया होता। आखिर क्या है
तमिलनाडु में जातीय अत्याचारों की स्थिति ?
ध्यान रहे कि चन्द रोज पहले इण्डियन एक्स्प्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि आज भी
वहां के 32 जिलों में से 28 जिले दलित एवं आदिवासियों पर अत्याचारों के मामलों में अग्रणी
हैं। ;ंजतवबपजल चतवदमद्ध विगत दो दशकों में वहां इन तबकों पर अत्याचारों के 6,668 मामले
दर्ज हुए हैं। (इण्डियन एक्स्प्रेस 25, फरवरी 2011) तमिलनाडु वही सूबा है जहां दलित जनसंहार
की आजाद हिन्दोस्तां की पहली घटना सामने आयी थी, जब 1969 में किझेवनमनी नामक स्थान
पर 42 दलितों को -जिनमें अधिकतर महिलाएं एवम बच्चे शामिल थे - दबंग जातियों ने जला कर मार
डाला था। भूस्वामी तबके से सम्बधित दबंग जातियों का गुस्सा इस बात पर था कि दलितों ने
अपने अधिकारों के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में संघर्ष किया था। कुछ साल पहले जब
सुनामी की लहरों ने दक्षिण के तमाम सूबों में तबाही मचायी थी, तब वहां के राहत शिविरों
में दलितों के साथ होनेवाले भेदभाव की घटनाओं से राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सूर्खियां
बनी थीं। कहने का तात्पर्य यही कि दलित-आदिवासियों पर अत्याचारों के मामले में शेष भारत
से वहां की स्थिति अलग नहीं है।
गौरतलब है कि अपने यहां की विशिष्ट गैरबराबरी का बाहर जिक्र होते देख आगबबूला होते देख
मलेशिया में स्थित भारतवंशी अनोखे नहीं हैं। अमेरिका एवम पश्चिम यूरोप के तमाम देशों
में यहां के तमाम लोग गए हैं। अमेरिका की सिलिकान वैली में तो कई भारतवंशियों
ने अपनी मेधा से काफी नाम कमाया है। मगर पिछले दिनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में
पाठयक्रमों की पुनर्रचना होने लगी, तब हिन्दु धर्म के बारे में एक ऐसी आदर्शीकृत छवि
किताबों में पेश की गयी, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं था। अगर इन किताबों को पढ़
कर कोई भारत आता तो उसके लिए न जाति अत्याचार कोई मायने रखता था, न स्त्रिायों के साथ
दोयम व्यवहार कोई मायने रखता था। जाहिर है हिन्दु धर्म की ऐसी आदर्शीकृत छवि पेश
करने में रूढिवादी किस्म की मानसिकता के लोगों का हाथ था, जिन्हें इसके वर्णनमात्रा से
भारत की बदनामी होने का डर सता रहा था। अन्ततः वहां सक्रिय सेक्युलर हिन्दोस्तानियों को,
अम्बेडकरवादी समूहों तथा अन्य मानवाधिकार समूहों के साथ मिल कर संघर्ष करना पड़ा
और तभी पाठयक्रमों में उचित परिवर्तन मुमकिन हो सका।
पिछले दिनों यह ख़बर भी आयी थी कि दक्षिण एशिया के मुल्कों से वहां ब्रिटेन में बसे
लोगों में अपनी सन्तानों की, खासकर बेटियों की जबरन शादी करने की या उन्होंने अगर अपने
हिसाब से शादी की तो ‘आनर किलिंग’ की घटनाएं भी सामने आ रही हैं। अभी ज्यादा दिन
नहीं बीता जब लन्दन, बर्मिगहैम तथा ब्रिटेन के कई अन्य शहरों में एक पंजाबी नाटक ‘बेहजती’
को लेकर वहां स्थित सिख समुदाय ने नाटकगृहों पर उग्र प्रदर्शन किए थे और नाटक की लेखिका
के नाम मौत का फतवा जारी किया था। नाटक में सिख प्रार्थनास्थल में किसी युवति के साथ हुए
अत्याचार का प्रसंग शामिल था, जिससे वह उद्वेलित हो उठे थे। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि
इससे सिख धर्म की बदनामी होती है।
कोई कह सकता है कि यह कोई प्रातिनिधिक घटनाएं नहीं हैं और ऐसे उदाहरणों को
भी ढूंढा जा सकता है, जहां भारतीयों की अलग छवि सामने आती हो। मुझे लगता है कि यह
अपने आप को बहलाने की बात है। मलेशिया, अमेरिका एवं ब्रिटेन तीनों स्थानों पर जमे
हिन्दोस्तानिंयों का यह व्यवहार निश्चित ही हमें सोचने के लिए मजबूर करता है। आखिर अपनी
कमजोरियों को छिपाने से कोई कौम बड़ी हो सकती है कभी ?
कोईभी वास्तविक तौर पर आधुनिक व्यक्ति का व्यवहार पूर्वआधुनिकों की तुलना में किस
मायने में भिन्न कहा जा सकता है ? तर्कबुद्धि, वैज्ञानिक चिन्तन, व्यक्ति की आजादी, आत्मप्रश्नेयता
( अर्थात अपने आप से प्रश्न करना ) आदि विशिष्टताओं से लैस एक आधुनिक व्यक्ति के लिए अपनी
संस्कृतिगत कमजोरियांे से जूझना जहां स्वाभाविक समझा जा सकता है, वहीं एक पूर्वआधुनिक व्यक्ति
के लिए परम्परा की दुहाई देते हुए अपनी कमजोरियों का महिमामण्डन करना अधिक स्वाभाविक लग
सकता है। विदेशों में बसे और ऊपरी तौर पर आधुनिकता को पूरी तरह स्वीकार किए लोगों
को यह सोचना ही होगा कि वह इस द्वंद से कब उबरेंगे, जहां उन्हें अपनी सरजमीं पर कायम या घटित
होनेवाली सभी चीजें आकर्षित करेंगी और आदर्श लगेंगीं।
भारतीयों के मानस में व्याप्त यह दोहरापन ही है कि जहां वह आस्टेªलिया में भारतीय
छात्रों पर होनेवाली ज्यादतियों से उद्वेलित दिखते हैं, मगर अपने यहां के शिक्षा संस्थानों
में आए दिन दलित-आदिवासी या अल्पसंख्यक तबके के छात्रों के साथ होनेवाली ज्यादतियों को
सहजबोध का हिस्सा मान कर चलते रहते हैं।

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